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आंसूं किसी के दुःख को समझता नहीं है, और न ही किसी की ख़ुशी को
तेरा इंतजार करता हूँ रोज रातों में, खुद को सांसों में समेटा हुआ देखता हूँ
तुम्हारे बगीचे में भी खुशबु रहती है, मेरे रोग में भी भरोसा रहता है
निकाल दिया उसने अपनी जिंदगी से भीगे कागज़ की तरह, ना लिखने के काबिल छोड़ा ना जलने के
वो एक रोज सारी खुशियाँ लेकर लौट आएगी, इस उम्मीद को लेकर बहाल रही है जिंदगी
उदास कर जाती है मुझे हर रोज ये शाम, ऐसा लगता है जैसे कोई भुला रहा है धीरे धीरे
जिसकी जैसी सोच वह वैसी कहानी रखता है, कोई परिंदे के लिए बन्दुक तो कोई पानी रखता है
मैं ज़िन्दगी से नहीं अपने आप से नाराज़
आज इंसान ही परेशान है क्योंकि, रिश्ते में जो गर्मी होनी चाहिए वो हमारे दिमाग में है
थका हुआ हु थोड़ा, जिंदगी भी थोड़ी नाराज है, पर कोई बात नही ये तो रोज की बात है